Saturday, December 1, 2012

दूर रहो तुम मीत मेरे


अपने जीवन का परिचय किससे कहना 
कैसे कहना !
धरती के कण कण में अपने मन का 
रमते रहना 
मिटने में ही मैंने जाना जी जाने का 
स्वाद 
आंसू के माला का तर्पण 
औ हँसने  का अवसाद !
तुमने कहा बंधु  मेरे
लो मेरा ये वरदान 
मेरे स्नेह के निभृत निलय में पी जाओ 
सब अपमान  
तुमने केवल सहना जाना ,सहने में जीवन 
की प्यास मै 
अमृत ले आया हूँ , करुण जगती की आस '`
मैंने अपने दृग उठाए अचंचल स्थिर पलक 
पुतलियों की लहरों पर 
वेदना थी रही छलक ..
तुम तो अमृत के बेटे हो , अमृत लेकर आये हो 
मेरे अभाग्य को अपनाकर निज 
सौभाग्य बनाने आये हो पर 
मै हूँ अभिशाप की छाया जलना और जलाना जाना 
तेरे अमृत-घट को भी झुलसाना  जाना 
दूर रहो तुम मीत मेरे 
मेरे सुख दुःख मेरे गम से अभिशाप की बदली में 
डूबे 
टुकड़े टुकड़े जीवन के तम से .....

No comments:

Post a Comment