Tuesday, November 10, 2015

अमा की कालिमा को  हरने दीपों की पाती जगमगा उठी
जैसे खुशियों के सैलाब
गमो के पहाड़ से
फूट पड़े हैं .
ये दिवाली आती जगमगाती
दिलो को रोशन  करती
उम्मीदे कितनी जगाती.....
भूल जाओ अपनी व्यथा को
राग भरो अनुराग भरो
जन जन में अनुपम सौहार्द्र भरो..

धरती  पर जितने दीप  जले
उतनी ही खुशियाँ  तुम्हे मिले .

.

Friday, October 30, 2015

करवा चौथ

बूढ़ी माँ 
करवा चौथ के दिन निहार रही थी
बालकोनी से चुपचाप 

सामने पार्क की चहल पहल
हंसी की फुलझड़ियाँ ठहाकों का
गर्म बाजार
मेहँदी रचाती अल्हड बहुएँ बेटियां
बूढी माँ अपनी सूनी हथेलियों को देखती रही
एक उसाँस उसकी छाती चीर निकलती रही
कभी हम भी नारी आंदोलन में रहते थे
पर माता पिता को पहले पूजते थे
बबुआ के पिता भी न जाने कहाँ चले जाते हैं
अवकाश प्राप्त का जीवन वह जी नही पाते हैं
वह कभी अपनी झुर्राती हथेलियों तो कभी
अपनी श्लथ अँगुलियों को निहारती है
एक इंतज़ार खत्म होता है
पति की आँखों में एक खालीपन
पत्नी की मेहँदी विहीन हथेलियों को देख
उसके सूने नयनो में बादल आ जाते हैं
उसकी हथेलियों को प्यार से चूमते --
लो तेरे हाथों में मैंने प्यार की मेहँदी रच दी
वे तो बच्चे हैं हमारे
जो कभी हम थे आज बच्चे हैं हमारे
पत्नी का सर पति के सीने पे लुढ़क जाता है
करवा चौथ का व्रत पूरा हो जाता है------


आह ! रौशनी सी रात मे
चांदनी की शमा जल रही थी
कांच की दीवारों से झांकती
हर लम्हा तेरी याद दिला रही थी
ओ पल आज भी याद है मुझे
तुम्हारी आँखों ने जब
मुझे प्यार किया
दिल का अन्धेरा रोशन हो गया था
आज भी तुम्हारी उन्ही
प्यार भरी नज़रों की आस लिए
अधरों में मुस्कान लिये
बैठे हैं हम शरद पूर्णिमा की
धवल तन्हाइयों मे........
रावण जल गया उस महान पंडित को बुराइयों का प्रतीक समझ हम हर साल जलाते हैं , करोड़ों रूपये स्वाहा कर , वातावरण को प्रदूषित कर हम आनंद मनाते हैं --पर क्या हम अपने अन्दर की बुराईयों को नष्ट कर पाते हैं , अहंकार का नाग फन काढ़े हमारे ह्रदय को ग्रस रहा होता , क्या हम उसे मार पाते हैं??? काश ! मानव मानव बन पाता !, अपने बहार भीतर को पारदर्शी ,निरभ्र और स्वच्छ बना पाता है ???
प्रश्न ढेरों ढेर ,उत्तर कहीं नही.
.देश में किसी के पास नही---

Friday, October 23, 2015

खून के रिश्ते हथेली की उँगलियों की तरह होते हैं  
अपने आप में निर्बंध 
स्वछन्द।
अपने अपने आकाश 
अपने ही संसार
किन्तु
जब किसी पर कोई विपत्ति 
कोई प्रहार होता है 
सारी उँगलियाँ मुट्ठी बन सशक्त हो जाती है
सभी एक हो जाते हैं

ये खुशबू होती है रिश्तों में …।

,Khoon ke rishte hatth ki ungliyon ki tarah hote hain ,apne aap me nirbndh, swachchhnd, / apne apne akash, apne hi sansar . / kintu ,jb kisi pr koi vipatti, prahar hote hain to ,sari ungliyan muthhi bn sashkt ho jati hai / sbhi ek ho jate hain ..ye khushboo hoti hai rishto ki..

Wednesday, September 16, 2015

आखिर कब तक ,कब तक आखिर तुम कौन हो  ? क्यों आ आ  कर मुझे तडपा जाते  ? तुम्हे देखने के लिए  कितनी बेकल हो उठी हूँ मै. कितनी छटपटा रही हूँ मै.  ओ अदृश्य ! अब नही सहा जाता 
कब तक यूँही  भटकती रहूंगी , हर चेहरे में तुम्हारा चेहरा, हर छवि में तेरी छवि , हर स्वर में तेरा स्वर मुझे भरमा जाता है  ऐसा एहसास वो तुम हो ..वो तुम हो..दौड़ जाती हूँ , एक मृगतृष्णा के पीछे...परछाही के पीछे भागती , दौडती.....
कोई भी दर्द भरा गीत गता है, कोई भी धुन कहीं से आती है  लगता है तुम मुझे पुकार रहे हो  पुकार रहे हो, मै विक्षिप्त  हो जाती हूँ...मेरे जीवन की उषा बेला में भी ये ही पुकार मुझे छटपटा जाती थी..आज सांध्य बेला में भी...तुम कौन हो ..तुम कौन हो  ??ए 
चारो ओर रज़त चांदनी की तरह पानी का जाल बिछा हुआ है...घास सेवार पानी की लहरों पर , हवा  के झोंको के साथ अंगेठी  लेते थिरक  रहे हैं. . जलघास के हिलते डुलते पत्ते जैसे मुझे बुलाने के तेरे संकेत ही ना हो जलघासों के बीच पानी में तैरती एक छोटी सी चिड़िया किनारे की तलाश में कभी सेवारों से बिंध  जाती है तो कभी करमी लत्ती में उलझ जाती है. ...वो भी मेरी तरह ही किसी की तलाश में है, कितनी मजबूर ,कितनी दयनीय स्थिति है उसकी...कभी कभी एक एहसास होता है  तुम मेरे बालों से खेलते निकल जाते हो ....'ऐसा लगता है किसी ढीठ  झकोरों की तरह , खेल आयी है तेरे उलझे हुए बालों से....' तुम्हारे स्पर्श की अनुभूति में डूब डूब जाती हूँ , अधरों पर एक स्वर्गिक मुस्कान खेल जाती है , चेहरा अलौकिक आभा से उद्भासित हो जाता है..आँखें मुंड कितनी देर तक मै तुम्हारे सामीप्य की अनुभूति  में डूबी रहती हूँ...और फिर सपना टूट जाता है , दुनिया मुझे अपनी निर्मम  बाँहों में खींच लेती है....तुम कहीं नहीं ..कहीं नही...तुम मुझे छोड़ भी नही पाते, मै तुम्हे भूलना चाह कर  भी भूल नही पाती  , ये कैसे बंधन हैं, ये कैसे रिश्ते हैं..क्या सात जन्म इसी को कहते हैं..
एक दिन तुमने मेरी  हथेलियों को चूमते हुए कहा था --लो मैंने तेरी हथेलियों को विश्वास से भर दिया है . तुम मेरा विश्वास करती रहना , ये हाथ अब अबल नही, बेजान नही . इसमें मेरे विश्वास 
का नन्हा पौधा लगा है ..मै हर वक़्त तुम्हारे साथ हूँ , हर पल  हँ-- तुम यूँही विश्वास और प्यार दुनिया को बांटती रहना..
मेरी हथेलियाँ ही नही मै  पुरे की पुरे  तुम्हारे विश्वास से भर उठी थी. सारा तन तेरे प्राण से अनुप्राणित हो उठा था , कैसी विडंबना थी मेरी भी ..नियति  का अपना भी तो कुछ रंग होता है..तुम चले गए अपना विश्वास मुझे सौंप कर ..तुम फिर अदृश्य हो गए मेरी साँस बन कर ..आज लगता है की वो सपना था या सत्य  ??  पर मेरी हथेलियों में लगे विश्वास का वो पौधा , मेरे आंसुओं  से सिंचित हो आज विशाल वटवृक्ष बन गया है ..उसे कोई भी शक्ति उखाड़ नही सकती ..खुद तुम भी नही..पर मेरी आत्मा भटक रही है, मै थक गयी हूँ, दुनिया के सुरतालको  मै समझ नही पाती हूँ , संगत बिठाते बिठाते हताश निराश हो उठती हूँ कभी कभी ..तुमने भी तो नही सिखाया और छोड़ गए मझधार में.................... 
तुम हो कहाँ..भटकती हवाओं  का संस्पर्श तो पाती हूँ , पर तुम्हारी तरह ही अदृश्य ..इन मेघमालाओं में विचरने की पहचान तो मुझ में अंकित है ही पर वे भी तुम्हारी तरह दूर मुझसे काफी दूर...दुःख मेरा जीवन साथी बन गया है, नही , शायद मैंने दुःख को अपना लिया है, नही नही  दुःख ने ही मुझे अपना लिया है.. पता नही किसने किसको  अपनाया है , पर वो मेरा प्रियतम  बन बैठा ,वो मेरी मुस्कान है , शायद इसीलिए तुम्हारी तलाश अभी भी जारी है ...तुम्हारी तलाश में दर्द ने मेरा साथ दिया , दुःख ने मेरा हाथ पकड़ा और मै तुम्हे  खोजती रही ..पगले, ये कैसा अपनापन है , कैसी बेकली है....तुम्हे पता भी नही..तुम्हारी तलाश मेरी पूजा है , मेरा ध्यान है धर्म है....

 की बातें की थी ना ? कुछ ऐसी  ही थी ना आने वाले भविष्य की पूर्वसूचना ----मै तेरे चेहरे को पहचान कर भी ना पहचान पाई थी ..मै पलंग पर पड़ी थी, मेरे सिरहाने आके तुम बैठ गए थे , तुम्हारे प्रेमिल स्पर्श से तन मन मेरा सिहर उठा था ..मै उन्मन हो उठी थी ..सम्मोहन के पल टूट गए मै वास्तविकता में आ गयी थी..सोचती रह गयी पल भर के लिए ही तुम क्यों मेरे पास आये होगे ..जानती हूँ तुम मुझे दुःख मे देखना नही चाहते..पर दुखी क्यों कर जाते हो...  किन्तु जब गहराई मे सोचती हूँ  सपने का एक एक क्षण ,एक एक टुकड़ा प्रकम्पित कर जाता है मुझे -- जब कोई अजनबी मन के दर्पण मे ,आत्मा मे अपनी छवि उतार देता है तो फिर वह प्राण प्रिये बन जाता है , एक ऐसा प्यार जो पूजा के हद तक पवित्र है और तीव्र है ..फिर हम तुम दो कहाँ रह गए एक परछाही सी मेरे इर्द गिर्द भटकती रहती है और मै  कोई प्यासी  आत्मा , अधूरी  आत्मा  उस परछाही से लिपटने को बेजार ......ऐसा क्यों लगता है, ऐसा क्यों होता है...जब मैंने अपनी आत्मकथा किस्त किस्त जीवन लिखी  तो वो मेरी आपबीती थी. किन्तु किसी ने कहा सारी की सारी ४०० पृष्ठों मे अदृश्य रूप से तुम्हारी ही छवि थी...मैंने तो स्थितियों, परिस्थियों के साथ तुम्हारा जिक्र किया था औरों की तरह ही...फिर फिर...मेरे सम्पूर्ण जीवन आराधन को तुमने अपने प्यार के रेशम धागों से बांध रखा है......
क्रमश;  ( मैथिली से अनुदित )

Friday, September 11, 2015


लताएँ तरुवर का सहारा ले आगे 
बढती हैं किन्तु, 
बेसहारा नही होती ये लताएँ 
सहारे की तलाश करती भी नही 
ये लताएँ अपना रास्ता खोजती 
अपनी मंजिल को तलाशती 
धरती की ही गोद में ,उसी के वक्ष पर 
यत्र तत्र फ़ैल जाती ये लताएँ ..
जिन्हें आकाश छूने की ललक है 
वो किसी न किसी उर्ध्वगामी तरुवर  का 
सहारा ले 
ऊँचाइयों के सपने देखने लगती है 
कामनाओं की डोर  बुनने लगती है 
प्यार से दुलार से  तरुवर को 
अपनी भुजाओं में बांध लेती  ये लताएँ 
और फिर 
तरुवर का ह्रदय स्पंदित ; प्रकम्पित लता की आत्मा 
शिव और शक्ति कीतरह 
प्रकृति और पुरुष की तरह 
आसमान की ऊँचाइयों को छूने का 
प्यार ममता मानव कल्याण का औदात्य भाव 
बिखेरने का संकल्प लेती 
पनपती जाती ये लताएँ ............
अपने जीवन का परिचय किससे कहना 
कैसे कहना !
धरती के कण कण में अपने मन का 
रमते रहना 
मिटने में ही मैंने जाना जी जाने का 
स्वाद 
आंसू के माला का तर्पण 
औ हँसने  का अवसाद !
तुमने कहा बंधु  मेरे
लो मेरा ये वरदान 
मेरे स्नेह के निभृत निलय में पी जाओ 
सब अपमान  
तुमने केवल सहना जाना ,सहने में जीवन 
की प्यास मै 
अमृत ले आया हूँ , करुण जगती की आस '`
मैंने अपने दृग उठाए अचंचल स्थिर पलक 
पुतलियों की लहरों पर 
वेदना थी रही छलक ..
तुम तो अमृत के बेटे हो , अमृत लेकर आये हो 
मेरे अभाग्य को अपनाकर निज 
सौभाग्य बनाने आये हो पर 
मै हूँ अभिशाप की छाया जलना और जलाना जाना 
तेरे अमृत-घट को भी झुलसाना  जाना 
दूर रहो तुम मीत मेरे 
मेरे सुख दुःख मेरे गम से अभिशाप की बदली में 
डूबे 
टुकड़े टुकड़े जीवन के तम से ............




Thursday, September 10, 2015

.खिड़की से झांक रहे थे हम तुम 
बारिश हो रही थी 
कोई वृद्ध दम्पत्ति
एक छाते के तले 
फूल तोड़ते सैर पर जा रहे थे 
तुम ने कहा था
देखती हो
हम तुम जब बूढ़े हो जायेंगे
तो ऐसे ही बारिश में छाते लेकर
सैर करेंगे
और मैंने मचलते हुए कहा था ---
साथ ही गायेंगे –
प्यार हुआ इकरार हुआ
किस तरह शिशु की तरह
खिलखिला उठे थे तुम
किन्तु वो दिन आया ही नही
तुम्हे जाने की जल्दी जो थी ....