परिभाषा प्रेम की
( कामायिनी -उर्वशी )
डॉ. शेफालिका वर्मा ///..........
तुम पुरुरवा हो /
देह काम में डूबे से /
मै श्रधा हूँ
जगती में आयी भूली सी /
तुमने माना
देह प्रेम कि जन्म भूमि है /
मैंने समझा
प्रेम ह्रदय कि विस्तृत
जलनिधि है /
तुम
उर्वशी को भर बाहों में
पाठ प्रेम का पढाते /
मै मनु को ले
ह्रदय-गुहा में
दिखलाती जीवन की राहें !
/उस अरूप के रूप का
तुम देह-गंध पीते
/हम मानस के शतदल में
सौरभ की साँसे जीते /
तुम में तृषा जीने की पीने की /
मै खेलती खेल
मन से मन में खोने की /
पुरुरवा !
तुमने पायी उर्वशी
भोली भाली अल्हड सी /
बंधनहीन ,सीमाहीन आ समायी
उन्मुक्त प्रतिमा मंद समीरण पर
मदमाती सी !!/
परिभाषा प्रेम की है विचित्र ....../
देश काल वय विस्मृत कर
मानव जीवन
बन जाता बस एक चित्र /
अतृप्ति की प्यास लिए
दौडती वह जलधारा
/सारे रिश्ते ,सारे बंधन
बन जाते एक कारा /
क्या होता कवि यदि चैन तुम्हारा
सुकन्या की आँखें हर लेती /
आरती की दीपशिखा भुजबंधों में
तेरे सिमट पाती ??
तब होती क्या परिभाषा प्रेम की
देह प्रेम की जन्म भूमि बन
मृणाल भुजाओं में बंध पाती...??
देह भुजाओं में निर्बंध बंध जाती ..???
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