जब जब मैंने सत्य को खोजना चाहा
असत्य मेरे समने आ मुस्कुराने लगा
मन मेरा हारने लगा
रेत की दीवार पर
लहरों के तट पर
चांदनी खोजती रही
प्रत्येक चेहरे से पेड़ों की छाल की तरह
नकाब उतारती रही
कितना विरूप है ये असत्य , कितना कठोर
तपते मरुथल में मै भागती रही
जिन्दगी से समझौता करती रही
संस्कार को बनाने के लिए
व्यवस्था के प्रपंच को कुचलने के लिए
पता नही कब कैसे इस व्यवस्था का अंग बन गयी
मै स्वयम असत्य बन गयी .......
औरों के आंसू पोंछते
आँचल खुद का भिंगो गयी .................
पता नही कब कैसे इस व्यवस्था का अंग बन गयी
ReplyDeleteमै स्वयम असत्य बन गयी .......
औरों के आंसू पोंछते
आँचल खुद का भिंगो गयी .................
...आज के यथार्थ का बहुत गहन और सशक्त चित्रण... बहुत सुंदर
(अगर वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें तो कॉमेंट देने में सुविधा रहेगी)