मै तो थी अंधियारी रजनी
कितनी लौ जला दी तुम ने
जिसे निकट से देख ना पाती
उर अंतर मन से पहचाना
जिसको मैंने प्राणों का संगीत है माना
मै तो फली फूली फुलवारी थी
कितनी पतझार उठा दी तुम ने
निज पीड़ा में घुल घुल
कुछ कथा कहानी लिखती थी
अनचाहे अनजाने आंसू से
अंतर का कोना रंगती थी
मै तो थी शान्त नदी की धारा
कितनी उर्मि उठा दी तुमने
क्यों कर भूलूं तुझे जन्म भर
सुधि की बेसुध छांवों में
बिछुडन का ले दर्द उम्र भर
भटकूँ सपनो के गावों में
मै तो थी बिरवा तुलसी की
कितनी
जोत जला दी तुमने .......
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