तुम्हारा शब्दहीन मौन
टुकड़े टुकड़े हो बिखर गया
पलकों की कोर पर कांपती ये बूंदें
खंड खंड हो
कपोलों की धरती पर बिखर गयी !
इन खंडित शब्दों से अतीत बेहतर था
प्रत्यंचा से छूटे तीर
लौट कर नही आते और तुम सह भी तो नही पाते
पछवा की तरह बहती
सांय सांय तुम्हारी याद मेरे बदन को तोड़ फोड़ जाती है
मन प्राणों मे कबीर की साखी
गुनगुना जाती है .
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