Thursday, July 5, 2012

अब मै नाच्यो बहुत गोपाल - ३


मन की दुनिया 

उस रात स्कॉट्लैंड  के विजन विपिन मे अवस्थित उस सुनसान मिनार्ड कास्ल मे मै छटपट कर रही थी..सारा दिन तुम्हारी खोज मे तो आस्ति नास्ति के बीच डोलती रहती हूँ..जितनी ही मै कल्पनाओं के लोक मे जीती हूँ, वास्तविकता की सत्ता  से उतनी ही  असम्पृक्त होती जाती हूँ. कल तूम सँभालने वाले थे आज बेसहारा हूँ,,दिल को किन्तु समझने वाला फिर वैसा दिल ना मिलेगा..रात की कालिमा मे ,काली  साडी मे लिपटी जैसे उदासी का एक सम्पूर्ण गीत बन गयी थी.रजनी की तमिस्रा मे  रजनी का अस्तित्व ही लय हो गया था . मेरा समस्त तन वन प्रांत मे गूंजती उदास तान बन कर रह गया था .आह इस तपस्विनी की कुटी के समान ह्रदय मे इतने स्नेह-सौन्दर्य लेकर क्यों आ गए थे..??अगर मृत्यु  मेरे लिए नही है  तो जीवन तो मेरे लिए कहीं से भी नही....
मेरे अंदर स्थित नन्ही शेफाली अलग से खाती पीती है. उसका एक अपना जीवन है . वह लोगो से घिरी  रह कर भी नितांत अकेली रहती है . अकेलेपन में भी किसी का सामीप्य  महसूसती  है. और  फिर रात रात  भर  जागने की  यह आदत !  एक  एहसास है जो मुझे सोने नहीं देता .
मै लेखिका  हूँ, कवयित्री हूँ , कभी कभी  लिखते लिखते मुझे लगता है  जैसे  सारे  शब्द  हांफ रहे हों , सारी पंक्तियाँ  सिसकियाँ भर  रही हो  और सारे अक्षर उसांसें ले रहे हों , उफ़ ये कैसी  अनुभूति है न तो जीने देती है  न ही मरने . ऐसा लगता है जैसे  कहीं कोई मेरे लिए रो रहा  हो. तडप  तडप कर मुझे पुकार  रहा हो . मेरी आत्मा उस अनदेखे के लिए विकल  हो उठती  है . मेरा कलेजा मेरी मुठी  में आ जाता है एक घाव की तरह ,    सीने  में एक जख्म की तरह ...मेरे ईश्वर ,मेरे खुदा ..ये कोन सा रोग  मुझे  लगा दिया...जिन्दगी  का रोग .......
.........और  उस दिन का सपना --जिसने मेरी जिन्दगी के दर्द  को और भी लहूलुहान  कर डाला   वह  सपना जैसे   मुझे तोड़ गया ---------------------------------------------------
मै एक यात्रियों   से   भरे पानी  के जहाज पर सफर  कर रही हूँ . जहाज  में बडी भीड़ है...मै इस भीड़ से घबडा  कर जहाज  के एक खाली हिस्से की  तरफ चली जाती हूँ. उस निर्जन हिस्से में मै रेलिंग  पकड़े सागर की विस्तृत  नीलिमा  को देखने लगी.  चारो ओर नील सागर का अथाह पानी ,उपर  नीला आसमान , सागर की लहरों को चूमता आसमान --दूर क्षितिज  में --मै मन्त्र मुग्ध सी  इस  प्यासे चिर मिलन को देखती रही ...........मेरे बाल ,मेरा आंचल हवा के साथ छेड़खानी कर रहे थे . मैंने जीवन में इतने सुन्दरतम  क्षणों  को नहीं जीया था .मेरी आँखों के आकाश भी नीले हो गए थे , होठों  पे गीत मचल  रहे थे '  तीर  पर कैसे रुकूँ मै , आज लहरों में  निमंत्रण  ' -------------कि एकाएक मेरे  बदन को जोरों का झटका लगा , मै लडखडा  कर गिरने लगी थी लेकिन रेलिंग के सहारे अटक  गयी , मैंने  भयभीत  सा पीछे मुड कर देखा  ------मै जिस हिस्से में खड़ी  थी वो हिस्सा जहाज  से टूट कर अलग  हो गया था  और  मुझसे  बेखबर यात्रियों से भरा जहाज दूर चला जा रहा था .....
मैंने अपने चतुर्दिक फैली  अनंत ,अथाह  जलराशि को देखा  ,एकबारगी  मै विमूढ़  सी रह  गयी ,मेरे हाथ विवश  से उठे  जहाज को संकेत  देने के लिए .मेरी जुबान लडखडाई  पर शब्द एक भी बाहर नहीं आया.. बीच सागर  में निर्वाक ,  निस्तब्ध  दीपशिखा  सी कांपती  अकेली -- नितांत  अकेली...
मैंने  अवश  नजरों  से जाते जहाज  को देखा और जहाज मेरी नज़रों से ओझल होता रहा . --------------------और एकाएक  मेरी जोरों की चीख निकल गयी . मेरी ऑंखें खुल गयी . मेरा सारा बदन  थरथरा रहा था ,मेरी साँसे जोर जोर से चल रही थी , मेरा सारा     तन पसीने से लथपथ -----आज तक मै अपने इस सपने का अर्थ खोजती रही , क्या ये ही मेरी नियति है..क्या लोगों के बीच रह कर भी  वे मुझे अलग कर देंगे ..क्या ये मेरी जिन्दगी है ..???
इस सपने ने मेरे सारे जीवन को आंदोलित कर दिया ... सोचती हूँ मेरी आँखें तभी क्यों खुली ?? मैंने ये क्यों नहीं देखा  कि विभ्रांत सी मै अपने आपको  उन लहरों के निमंत्रण में  समर्पित  कर बैठी. ??  मै आप से ही पूछती हूँ  ..आखिर इस सपने का अर्थ क्या है ? शायद मेरी बेचैनी को चैन आ जाये..याद आते ही उस कंधे की तलाश करती  मेरी ऑंखें कब लगी......


Translated from Maithili 

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